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परमात्मा ने आहार संबंधी जो नियम फरमाये हैं वह जानकर कई लोग ऐसी बातें करते है कि जैन तो अहिंसा को मानने वाले हैं इसलिये जीवहिंसा न हो इस कारण आलू नहीं खाने का भगवान ने कहा है, बाकी आरोग्य के लिए आलू खाने में कोई नुकसान नहीं । ये बातें नासमझ और गैरसमझ से भरी हुई है । भगवान ने आहारशुद्धि के जो नियम बतायें हैं, उनमें तीन बातें ध्यान में रखी गई है ।
प्रथम बात है कि, जीने के लिये खाने की जरुरत पड़े तो ऐसे खाद्य पदार्थ पसंद करना कि जिसमें कम से कम हिंसा होती है ।
दूसरी बात यह है कि, कम से कम हिंसावाले खाद्य पदार्थ ऐसे पसंद करना कि जिसमें आरोग्य की हानि न हो ।
तीसरी बात यह है कि शरीर के आरोग्य के लिये ऐसे खाद्य पदार्थ भी नहीं खाना जिनसे तुम्हारे मानसिक आरोग्य को हानि पहुँचे ।
अहिंसा, फिज़ीकल हेल्थ और मेन्टल हेल्थ तीनों को ध्यान में रखकर आहार चर्या के नियम बतलायें हैं । कई लोग यह मान बैठे हैं कि बस! अहिंसा को ध्यान में लेकर ये सब नियम बनाये है, पर हकीकत में अहिंसा के साथ-साथ तन-मन का आरोग्य भी जुड़ा हुआ है ।
आलू, गाजर, मूली, वगैरह कंदमूल में आते है । इनमें प्रचुर जीवहिंसा है । आरोग्य को भारी नुकसान पहुंचाते है इसलिये कंदमूल को त्याज्य कहा गया है, पर बेंगन जमीन के अंदर नहीं उगते, ये कोइ कंदमूल नहीं, तो भी भगवान ने उसे खाने के लिये नहीं कहा, इसका कारण यह है कि बेंगन खाने से व्यक्ति की मेन्टल हेल्थ बिगड़ती है। बेगन खाने के बाद व्यक्ति का मन बहुत तामसिक बन जाता है । मुझे एक काठीयावाड़ (गुजरात) के बापू मिले थे । उन्होने बताया कि बाजरी की रोटी के साथ गुड़ और बेंगन का साग खाए तो व्यक्ति पागल बन जाता है । दिन-रात माँ-बहन सभी का विवेक व्यक्ति भूल जाता है ।
मेरा तुम सबसे यही कहना है कि आहार संहिता के नियम मात्र हिंसा और अहिंसा पर निर्भर नहीं, इसमें तन-मन का आरोग्य और अध्यात्म भी जुड़ा हुआ है । शरीर में जो खुराक जाती है, उससे शरीर की सात धातुएँ बनती हैं और उसमें से मन के विचार तैयार होते हैं । सादी सिम्पल भाषा में मन और आहार की कड़ी जोडनेवाली कई कहावते प्रचलित है जैसे,
'आहार जैसी डकार'
जैसा अन्न वैसा मन',
'We are, What we eat'
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि, 'व्यक्ति का स्वभाव कैसा है, जानने के लिये व्यक्ति का मुंह देखना जरूरी नहीं। तुम मुझे उसके नित्य भोजन की थाली बताओं तो मैं तुम्हे बता दूंगा कि व्यक्ति स्वभाव कैसा है!'
सूंठ और आलू चिप्स :
इस तरह कई पदार्थ पूर्वावस्था में कंदमूल कहेलाने के बावजूद उनके उपयोग से आरोग्य सुधरता हो और दूसरी ज्यादा लगनेवाली हिंसा से बचने के लिये कई चीजों में छूट भी दी गई है । उदा. : सूंठ और हल्दी जब गीली होती है तब कंदमूल कहलाती है परन्तु सुखने के बाद उनके उपयोग करने में मनाई नही कि गई है क्योंकि सूंठ और हल्दी अनेक रोगों में उपयोगी है और सुखने के बाद कंदमूल नहीं कहलाती ।
मेरी इस बात को गलत समझ से कई लल्लू मेरे पास सुखी आलू चिप्स की छूट मांगने आते हैं । जैसे सुखने के बाद सूंठ और हल्दी चल सकती है तो सूखा हुआ आलू चिप्स क्यों नहीं चल सकता?
मुझे इन लल्लु बंधुओं को कहना है कि, ' नहीं! यह नहीं चल सकता । सूंठ और आलू की चिप्स में फर्क है । सोंठ की छूट औषधी के लिये है और तुम्हे वेफर्स की छूट स्वाद के लिये चाहिये । स्वाद के लिये छूट नहीं मिल सकती । पूरी जिंदगी में सूंठ खा खाकर व्यक्ति कितनी सूंठ खा सकता है? एक दिन में कोई ५०० ग्राम सूंठ खा सकता है क्या? गुजरात में कहावत है कि, 'कोनी माँअे सवा सेर सूंठ खाधी छे?' सूंठ खाना इतना सहज नहीं है परन्तु सवा सेर आलू तो कोई भी बच्चा एक दिन में आराम से खा सकता है । मानव एक दिन में जितना आलू खा सकता है उतनी सूंठ तो पूरे वर्ष भर में भी नहीं खा सकता । इसलिये सूंठ, हल्दी का नियम आलू, कांदा, लहसून में नहीं लगाना चाहिये ।
Source : Research of Dining Table by Acharya Hemratna Suriji