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जवानो में रोगों का ज्यादा होने का कारण प्रज्ञापराध हैं । फ्रेन्ड सर्कल के साथ रेस्टॉरेंट ओर ठेलों पर पावभाजी, वड़ापाव, भेलपुरी, पानीपुरी, मलाई कोफ्ता, पनीर पकोड़ी, छोलेपुरी, छोलेभटुरे, पीझा, हेम्बर्गर, सेन्डवीच, उत्तपा, कोकाकोला, थम्सअप, गोल्डस्पॉट, आइस्क्रिम पेट में डालते है, जो जड़ से आरोग्य का नाश करते हैं। आज की बिगड़ी हुई युवापीढ़ी की इतनी विषम परिस्थिति है कि बिचारों को ‘खाने की खबर नहीं और अभिमान का पार नहीं। गांधीजी कहते थे कि, ‘मोहल्ले के भूगोल का ख्याल नहीं और इंग्लैंड की नदीयों, गाँवो और शहरों के नाम याद कर रहे हैं ।' शरीर की संरचना पता नहीं, अंदर रही सात धातुओं और वात, पित्त, कफ का प्रकोप किससे होता है और ये शांत किससे होता है, यह आज की पीढ़ी को मालूम नहीं उघैर डेरायटी खाये बिना रहते नहीं । बस! कैसे भी करके वर्चस्व दिखाना हैं ।
कई लल्लुओं के पेट में गैस हो, ढमढोल बजता हो तो भी भाई-बंधु, दोस्त-यारों के बीच बेइज्जत न होना पड़े इसलिये जो सभी खाते हैं वह नवजवान भी खा लेता हैं । पेट की ऐसी की तैसी !
आयुर्वेद का नियम है कि भूख लगे बिना खाना नहीं । भूख बिना जो खाते हैं उससे आमरस तैयार होता है । यह आमरस सर्वरोगों का पितामह है । जिसे आज के डॉक्टर ईन्डायजेशन कहते हैं । इस एक महारोग से व्यक्ति की प्रकृति अनुरुप किसी को सद, किसी को बुखार, किसी को खांसी ऐसे भिन्न-भिन्न हजारों रोग होते हैं परन्तु सभी रोगों का जन्मदाता आम है । आम का जन्मदाता टेस्टफुल, स्वादिष्ट, मॉर्डन, न्यु व्हेरायटी वाला आहार है और इस आहार को पेट में डालने की गुस्ताखी करने वाला दोष 'प्रज्ञापराध' है ।
पूर्व में इस देश में अपने घरों के संस्कार ऐसे रहते थे कि अमुक चीजे कुल परंपरा में कभी भी कोई व्यक्ति खाते नहीं थे । इसलिये प्रज्ञापराध होने की शक्यता ही नहीं थी परंतु आज कुलाचार के नियमों का कहीं कोइ ठिकाना नहीं है।
मैं 1६ वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहा, ४० वर्ष के दीक्षा पर्याय में मैं तुम्हे गैरेंटी के साथ कह सकता हुँ कि मैंने जिंदगी में कभी भी कंदमूल नहीं खाया । इस काया में किसी भी कंदमूल का प्रवेश हुआ नहीं । इसमें उपदेश की जरुरत नही थी परंतु जैन कुल मे जन्म होने के साथ ही कंदमूल का त्याग हो जाता । हिन्दु कुल में जन्म लेने मात्र से मांसाहार का त्याग हो जाता है । इतनी सुंदर व्यवस्था आयोजित थी । डाइ तैयार थी इसलिए माल एकसमान ही बहार आता था । कोई भी संतान का जन्म होता था तो वह कंदमूल, मांसाहार का त्याग की डाई में से निकलता था इसीलिए तो जीवन में कभी भी इन चीजों के सामने नज़र तक नहीं करता । आज इन डाई को खत्म कर दी गई है । बालक के जन्म के पहले ही माँ-बाप आमलेट, कंदमूल खाकर खूद के पेट को भर चुके है तो फिर उनके संतान के पास से क्या अपेक्षा रखनी ?
साफ शब्दों में कहना पड़ेगा कि आर्यदेश की आहार-चर्या टूट गई है । एक भी नियम आज सलामत रहा नहीं. इसका यह क्ट्र परिणाम है कि कोई भी निरोगी खोजने से हाथ लगेगा नहीं ।
यह हमारा देश था जहां स्नान किए बिना रसोइघर में प्रवेश करना मना था । जितनी पवित्रता भगवान के मंदिर में पलती उतनी पवित्रता रसोई घर में पाली जाती थी । M.C. वाली महिला को रसोई घर में प्रवेश की मनाई थी । उनके खाना खाने बर्तन अलग रहते थे । खाना खाने के बाद उसे साफ भी अलग से करते थे, पानी छाने बिना उपयोग में नहीं लेते थे । अनाज को जीव-जन्तु की जयणा किए बिना उपयोग में नहीं लेते थे । रसोई का काम माता, बहन और पत्नी करती थी परन्तु परोसने का काम सदा माता ही करती थी। मॉं के हाथों महिमा थी। कहते है क ज़हर खाना पड़े तो मॉं के हाथों से खाना। खाने के पहले परमात्मा का नामस्मरण करते थे । पूज्य साधुमगवंतो को भिक्षादान किया जाता था । खाते वक्त बिलकुल मौन रखते थे । ज्यादातर चूले पर चढ़ी ताजी रसोई ही खाने में आती थी, ऐसे बहुत जरूरी कई नियम थे । इसमें से आज एक भी नियम सलामत रहा नहीं ।
आज यह कैसा काल आने लगा कि जो आहारशुद्धि जैनकुल में जन्म लेने मात्र से घर में सीखने मिलती थी, उस आहारशुद्धि को आज हमें आपको प्रवचनों में सिखानी पड़ती है ।
Source : Research of Dining Table by Acharya Hemratna Suriji
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