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सब रोगों की जड मन में पड़ी है :
मन की परिस्थिति बड़ी गहन है । इसकी रचना बहुत जटिल और अटपटी है । साइंटिस्टों ने डेप्थ सायकोलोजी कॉन्सेप्ट का विकास किया है । वे लोगों के मन की एक-एक तरंग चेक कर रहे हैं । बहुत सी नई मशीनें आई हैं । पूरा मेडिकल साइंस करवट बदल रहा है । आज तक रोगों का कारण वायरस, जर्म्स, पॉल्युशन और आहार-विहार मानने वाले अब सभी रोगों की जड ‘मन ‘ है, ऐसे लेटेस्ट संशोधन बाहर आए हैं । आधुनिक तकनीकी विज्ञान अब शरीर के सीमटम्स के बदले मानव के नेचर को देखकर दवा देने की सलाह देता है । कुछ समय में बहुत सारे रोगों का निदान कदाचित मनुष्य के स्वभाव अनुसार किया जाएगा और दवाएँ भी दर्द दूर करने के बदले मानव के स्वभाव को कन्वर्ट करें ऐसी होगी । मन को अणु, परमाणु और वायु की उपमा देने में आई है । गीताजी में श्री कृष्ण ने कहा है कि ‘‘वायुरेव सुदुष्करम्’’ मन को पकड़ने का काम वायु को मुठ्ठी में पकडने जैसा दुष्कर है ।
ऐसे चपल, चंचल, मलीन मन का इलाज स्वीच ऑन-ऑफ करने जितना आसान नहीं है । रीमोट कंट्रोल से टी .वी. को वश में रख सकते हैं परन्तु मन को कंट्रोल में रखने का काम मुश्किल है । ये कार्य पार करने के लिए एकदम गहराई में उतरकर मन की जड कहाँ पड़ी है, यह खोजना पड़ेगा ।
तुम बहुत ही ज्यादा जिज्ञासा अनुभव कर रहे हो कि मन की आधी कहाँ से उठती है? सायक्लोन का उदगम कहाँ से होता है? मैं कहुंगा पर तुम नहीं मानोंगे । मानने को तैयार नहीं होंगे । तुम कहोंगे कि ऐसा कभी होता होगा? परन्तु मानना पड़ेगा उसके बिना कोई इलाज नहीं। ये ज्ञानियों ने कहा है, शा में लिखा है और आज के विज्ञान ने हार थककर जैनीज़म की इस बात को स्वीकारी है।
मन की जड कहॉं है ?
जैन दर्शन कहता है कि मन की जड जीभ में है । जिसकी रसना कंट्रोल में नहीं होती उसका मन कंट्रोल में नहीं होता । मन और जीभ की डायरेक्ट लाइन चलती हें । आहार और विचार की हॉटलाईन चलती है ।
जरा गहराई में उतरो, अभी हमें हमारे ५० से ८०-९० किलो का फिज़ीकल स्ट्रक्चर दिखाई दे रहा हैं । यह सर्वप्रथम माना के गर्म मैं तैयार हुआ था । इसको तैयार होने में पूरे नव मास लगे थे । एक-एक अवयव को तैयार होते कई दिन, सप्ताह और महिने लगते हैं । उसका पूरा कोष्टक तंदुलवैतालिक नाम के जिनागम में दिया गया हे ।
रक्त, मांस, चर्बी, अस्थि और मज्जा आदि से भरा यह स्ट्रक्चर माता के गर्म में से जिस दिन बाहर आया था, उस दिन उसका वजन मात्र दो रतल था । धीरे-धीरे विकास पाकर आज ८०-९० किलो का हुआ हैं परन्तु गर्भावस्था में इसका वजन कम था । गर्भ में उत्पत्ति के प्रथम समय में तो सूक्ष्म अमीबा जैसा था । प्रथम सप्ताह में तो मात्र पानी के बुलबुले जैसा था । जीव ने गर्भस्थान में आने के बाद पहला कार्य आहार ग्रहण करने का किया । आहार लेते ही शरीर उसे चिपक गया । खाने मात्र से शरीर चिपक गया । उसकी दशा उस बिल्ली जैसी हुई जिसने दूध पीने के लिए लोटे में मुँह डाला उघैर लोटे में ही गला फस गया । मुल्लाजी को नमाज पढ़ते-पढ़ते मस्जिद गले पड़ गयी ऐसी बात हुई । शरीर रुपी बीज खुराक द्वारा तैयार होता है । इस बीज में से पांच अंकुर फुटे और पांच इन्द्रियाँ तैयार हुई । फिर चार अंकुर फूटे और हाथ-पैर तैयार हुए । जैसे-जैसे जीव गर्भ में ओजाहार करता जाता हैं, वैसे-वैसे शरीर बढ़ता जाता है । जन्म के बाद बच्चा जैसे-जैसे दूध गीता गया वैसे-वैसे स्ट्रक्चर बढ़ता गया । दांत आने के बाद तो चारो हाथों से खाने लगता है । कोठी मे जैसे-जैसे आहार भरता गया वैसे-वैसे स्ट्रक्चर बढ़ता गया, मोटा होते गया, वजन बढ़ता गया । आज तुम किस कंडीशन में हो तुम स्वयं जानते हो ।
मुंबई में एक बार मैं सुबह में हेंगींग गार्डन रोड़ से विहार कर रहा था तब कई व्यक्तियों को चड्डी पहने पेट उछालते-उछालते हुए दौड़ते देखा था । खाने में कंट्रोल नही होने के कारण चर्बी इतनी बढ़ गई है कि, पैंट के बटन बंद नही होते, रोज दौड़ना पड़ता है. रोज सबेरे उठकर वॉकिंग, जाॅगिंग, स्वीमिंग, एक्सरसाईज़, योगा और डायटिंग । कितनी तकलीफ है! खाते वक्त ध्यान रहा नहीं और अब जब शरीर ने मुरमुरे के बोरे जैसा शेप पा लिया तब व्यक्ति झाडू की कांडी जैसा दुबला होना चाहता है । जगत मे कितनी विचित्रता है कि, मलबार हील वालों को छाती के नीचे की टेकरी कम करनी है और चौपाटी के रेत में लेटते भिखारियों को छाती के निचे रहे राक्षसी खड़ा कैसे भरें इसकी समस्या है । नीचे वाले पेट का खड्डा भरने की कोशिष करते है और बड़े लोग अपनी काया को कम करने के लिए मोम जैसा पसीना बहाते हैं । कमाल है ये दुनिया!
इस शरीर की रचना का आद्य अंकुर जब फूटा तब वह आहार से फूटा था, आहार लेने के बाद ही बॉडी का डेवलपमेंट शुरु होता हैं । शरीर बनने के बाद इन्द्रियों की शक्ति मिली, फिर श्र्वासोश्र्वास की शक्ति मिली, श्र्वास लेने के बाद तुरन्त वाचा शक्ति संप्राप्त हुई और उसके बाद सबसे आखिरी में मन की शक्ति संप्राप्त हुअी. मन संप्राप्ति तक पहुंचने का पूरा क्रम है । जैनदर्शन उसे छ: पर्याप्ति के नाम से जानता है ।
(1) आहार पर्याप्ति (४) सासीश्वास पर्याप्ति
(२) शरीर पर्याप्ति (५) भाषा पयाँप्ति
( ३) इन्द्रिय पर्याप्ति (६) मन :पर्याप्ति
आहार लेने के बाद मन के निर्माण तक पहुंचने मे जीव व्वे मात्र एक अन्तर्मुहूर्त जितना समय लगता हैं । याने जीव ज्यादा से ज्यादा ४८ मिनिट में सपूर्ण कार्य कर लेता हैं और स्वयं गर्भाशय में विकास पाने के पूरे हक पा लेता है । जैनदर्शन इसे संज्ञी पर्याप्ता तरीके जानता है । कई जीव यह कार्य पूरा करते-करते बीच में ही मर जाते हैं, उन्हें जैनदर्शन संज्ञी अपर्याप्ता कहता हैं ।
Source : Research of Dining Table by Acharya Hemratna Suriji